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ੴ सतिगुर प्रसादि॥
(अद्वितीय सिख विरासत/गुरबाणी और सिख इतिहास,https://arsh.blog/) (टीम खोज–विचार की पहल)।
गुरमत संगीत के राग जै-जै वन्ती के आविष्कारक और श्रेष्ठ मृदंग वादक श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के शहीदी दिवस (6 दिसंबर को समर्पित)

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एक संगीतकार अपनी भाव भंगिमाओं को स्वर, ताल और लय के द्वारा प्रकट कर साकार करता है। गुरमत संगीत, भारतीय संगीत से इसलिये भिन्न है कि इसमें सिख गुरुओं ने अपनी सर्जनता और भावनाओं को प्रकट करने के लिए इसकी सृजना की है। निश्चित रूप से गुरमत संगीत प्राचीन मार्गी संगीत पर ही आधारित है।
गुरमत संगीत ऐसा देसी संगीत जिसकी कोई लिखित विधा नहीं है परंतु जो लोक भावनाओं में सम्मिलित था उसे भी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में शामिल किया गया है। इस कारण से यह गुरमत संगीत आम जन में बहुत लोकप्रिय हुआ। गायन शैली के अंतर्गत ही लोक गीतों का विवरण गुरबाणी में अंकित है।
देश में आयोजित भक्ति संगीत समारोह में गीतों का गायन एवं लोक धुनों का वादन किया जाता है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रदर्शन के समय गायक इन गीतों का गायन नहीं करते हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत, तीन प्रमुख अंगों पर आधारित है, गायन, वादन और नृत्य कला। वादन निश्चित रूप से गायन के अधीन है एवं नृत्य कला, गायन और वादन के साथ में संपूर्ण होती है परंतु गुरमत संगीत में नृत्य कला को वर्णित नहीं किया गया है।
गुरमत संगीत ‘शब्द’ प्रधान है। इस संगीत में राग, स्वर और ताल सहायक हैं परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में स्वर एवं ताल को प्रधानता दी गई है। गुरमत संगीत का लक्ष्य उस अकाल पुरख प्रभु की उपासना है। इसलिये इसमें विशुद्ध शास्त्रीय संगीत की भाव-भंगिमाओं को प्रदर्शित नहीं किया जाता है। गुरमत संगीत गुरबाणी की कोमल भाव-भंगिमा को प्रदर्शित करने का माध्यम है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की ज्यादातर रचनाएं विरासत को संभालने के साथ अपने शौक को पूरा कर मनोरंजन करना है परंतु गुरमत संगीत का विशुद्ध उद्देश्य मन की भावनाओं एवं परमात्मा के जाप को भक्तों के हृदय में जगाना है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में आलाप, मींड़, खटका, मुर्की, सरगम, तान, बोलतान, बोलवंड़ आदि रागो के प्रयोग के समय गायक को अपनी कलात्मक भावनाओं को प्रदर्शित करना होता है। जबकि गुरमत संगीत में ‘शबद’ (किर्तन) के भावों को प्रकट किया जाता है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में गायक राग के प्रारंभ में आकार के आलाप से राग का स्वरूप प्रकट करते है परंतु गुरमत संगीत में राग में आलाप की परंपरा है| गुरवाणी का फर्मान है:-
‘धंनु सु राग सुरंगडे़ आलापत सभ तिख जाइ’||
(अंग क्रमांक 958)
इस परंपरा में ‘ओंकार एक धुन ऐके राग अलापे’ का विधान है| गुरमत संगीत में ‘मंगलाचरण’ के रुप में ‘ੴ सति नामु करता पुरखु निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि’| मूल मंत्र के द्वारा आलाप किया जाता है|
भारतीय शास्त्रीय संगीत के समारोह के आरंभ में सरस्वती वंदना का गायन होता है। ऐसा माना जाता है कि मां सरस्वती विद्या और संगीत की देवी है परंतु गुरमत संगीत में प्रारंभ में पहले चार गुरुओं तक ‘ओम’ के द्वारा अलाप होता था। पश्चात पांचवें गुरु ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ के समय से इस आलाप वंदना को समायोजित कर ‘सोलह कला संपूर्ण’ की वंदना के स्थान पर अनंत कला के स्वामी जो ‘सरब कला समरथ है’ को एक बार नहीं अपितु अनेक बार उनकी ‘डंडोत वंदना’ की जाती है।
पंचम पातशाही ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी ने चार चौकियों (आसा की वार चौकी, बिलावल की चौकी, सोदर एवं कीर्तन सोहिला की चौकी) के गायन की मर्यादा को स्थापित किया है। उस समय से लेकर आज तक निरंतर अखंडित यह परंपरा श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब अमृतसर में निरंतर चली आ रही है। चौकी गायन की विधि गुरमत संगीत का महत्वपूर्ण हिस्सा है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में किसी भी धार्मिक स्थान पर ऐसी कोई नियम बद्ध परंपरा नहीं है।
गुरमत संगीत में ‘आसा राग’ का अत्यंत महत्व है। इसका गायन ‘आसा की वार’ के रूप में सुबह एवं शाम को सोदर के रूप में आवश्यक है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में ऐसा कोई राग नहीं है जिसका गायन/वादन किसी धार्मिक स्थान पर सुबह/शाम आवश्यक हो गुरमत संगीत की सभी गायन रचना आध्यात्मिक तथ्य पर आधारित है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में तराना एक ऐसी गायन शैली है, जिसमें साहित्य का नामो-निशान भी नहीं है। ध्रुपद गायक के रूप में भी नोम-तोम, री ना ना ऐसे अक्षरों का खुले आलप के रूप में प्रयोग होता है परंतु गुरमत संगीत में राग विधान के अंतर्गत ‘श्री राग’ को ही प्रमुख राग माना गया है। मध्यकालीन युग में भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग-रागिनी पद्धतियों में राग भैरव को प्रमुख राग के रूप में स्वीकारा गया था।
उपरोक्त दोनों रागो के ‘थाट’ वर्तमान काल में बदल गये हैं कारण मध्यकाल में शुद्ध ‘थाट’ का प्रयोग ग – नी स्वर कोमल के रूप में प्रयोग होते थे परंतु वर्तमान काल में भारतीय शास्त्रीय संगीत के विद्वान ‘श्री विष्णु नारायण भातखंडे जी’ ने बिलावल को शुद्ध ‘थाट’ माना है। जिसमें सभी शुद्ध स्वरों का उत्तम प्रयोग किया जाता है।‌ ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ ने ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का संपादन करते हुए ‘श्री राग’ को ही प्रमुख स्थान दिया है, जो वर्तमान काल में ‘पूरवी थाट’ में प्रवेश कर चुका है।
‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ ने भक्तों की वाणी के ‘घर’ को ‘सुरलेख’ के रूप में अंकित किया है। ‘घर’ का अर्थ ‘ताल’ माना जाता है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत की गायन शैलीयों में ‘घर’ का ‘सुरलेख’ कही भी नहीं पाया जाता है। गुरमत संगीत में ‘रहाओ’ कि तुक को प्रमुख स्थान दिया गया है एवं बाद में उच्चारित वाणी की तुकों को ‘राहओ’ के अंतर्गत दर्शाये गये सिद्धांतों के आधारित उसकी व्याख्या उदाहरणों सहित दी गई जाती है।
कई ‘शबद’ (पद्यों) में एक से अधिक ‘रहाओ’ भी होते हैं। जिनको परंपरागत ढंग से शिक्षा ग्रहण करने वाले कीर्तनकार भिन्न-भिन्न ‘शबदों’ (पद्यों) में रहाओ की पंक्तियों को स्थाई भाव से गाते हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत में किसी भी गायन शैली के गीत में एक से अधिक स्थाई भाव नहीं होते हैं।
गुरमत संगीत में गायकों (रागी सिंघो) के लिये छंद के पदों के अंको की संख्या का अत्यंत महत्व है। इस शैली में गायन करते समय अंकों की सीमा के बंधन में रहना आवश्यक है एक अंक पूरा अंतरा होता है और मर्यादा अनुसार इस अंतरे को गाने के पश्चात स्थाई भाव पर जाना पड़ता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की शैली में अंको का कोई विधान नहीं है। ख्याल के गीतों में दो और ध्रुपद में चार भाग होते हैं। इन भावों को स्थाई, अंतरा, संचारी और अभोग के नाम से संबोधित किया जाता है। कीर्तन करते समय ऊंची आवाज में वाह-वाह करके दाद नहीं दी जाती है और ऐसी कोई परंपरा भी नहीं है।
‘शबद’ (कीर्तन) गायन के समय या पश्चात तालियों की करतल ध्वनि की कोई परंपरा नहीं है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत की महफिलों में कलाकार की कला को शब्दों से एवं तालियों की करतल ध्वनि से दाद दी जाती है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में कलाकार मंच पर बैठकर श्रोताओं को अभिवादन कर उनकी शुभकामनाएं प्राप्त करते हैं उसके पश्चात ही अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं परंतु गुरमत संगीत में रागी सिंघ ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की हजूरी में सभी भक्तों को गुरबाणी से जोड़ शीश झुकाते हैं। इस परंपरा में रागी सिंघ पहले ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का एवं पश्चात उपस्थित संगत का अभिवादन करते हैं। गुरमत मर्यादा में ‘राजा और रंक’ सभी को एक माना गया है। इस दरबार में कोई बड़ा या छोटा नहीं है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में ऐसा नहीं है।
गुरबाणी में राग-रागिनी की पद्धति को मान्यता नहीं दी गई है। गुरबाणी में अंकित कई राग ऐसे हैं जो उच्चारण करते समय स्त्री लिंग का एहसास कराते हैं, जैसे:- गउड़ी, दीपकी, गउड़ी पूरबी दीपकी, गउड़ी गुआरेरी, गउड़ी बैरागण, सूही, तुखारी… इत्यादि परंतु ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में राग-रागिनी के स्थान पर राग नाम से ही संबोधित किया गया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में राग प्रबंध का आधार भारतीय शास्त्रीय संगीत ही है परंतु राग-रागिनी पद्धति से कोई रिश्ता नहीं है।
गुरबाणी की रचना हेतु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने कुछ ऐसे रागों की खोज की जैसे:- गउड़ी, दीपकी, गउड़ी पूरबी दीपकी, गउड़ी गुआरेरी, माझ, गउड़ी बेरागण, सूही, तिलंग, तुखारी इन रागों का उल्लेख भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुरातन ग्रंथों में भी नहीं मिलता है।
‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने गुरबाणी की रचना में छ: दक्षिणी भारत के रागों को भी सम्मिलित किया है। इस प्रकार दक्षिण भारत एवं उत्तर भारत के संगीत को एक दूसरे से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने अपने कार्यकाल में किया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में सिख गुरुओं द्वारा रचित राग और पद्य गुरमत संगीत की उपज और देन है।
गुरबाणी में ‘पड़ताल’ एक नवीन प्रकार की गायन शैली है। जिसका अविष्कार ‘श्री गुरु रामदास जी’ ने किया था। गुरबाणी में ‘श्री गुरु रामदास जी’ के 19 ‘पड़ताल’ उपलब्ध हैं।
गुरमत संगीत का प्रमुख वाद्य ‘रबाब’ है। ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के समय से ही रबाब की संगत कीर्तन के लिये की जाती रही है।’श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने ‘सारंदा’ का प्रयोग अपने समय में किया। इस वाद्य का अविष्कार ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ ने किया था। वर्तमान समय में ‘ताऊस’ और ‘दिलरुबा’ का प्रयोग भी गुरबाणी गायन के लिये किया जाता है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत के वाद्य सारंगी, बांसुरी, शहनाई आदि की संगत का प्रयोग गुरबाणी गायन के लिये नही किया जाता है।
गुरमत संगीत में स्वतंत्र वादन का कोई स्थान नहीं है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में अनेक वाद्यों को गायन की तरह महत्व दिया गया है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत का इतिहास अती विशाल और प्राचीन है। कालानुसार इसमें परिवर्तन होता रहा है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की गायन शैली में नव-नवीन गायन की रचनाओं को विकसित करने में संगीतकारों का अभूतपूर्व योगदान रहा है,जैसे कव्वाली और तराने के लिये अमीर खुसरो, ध्रुपद के लिए राजा मानसिंह, विलंबित ख्याल के लिए सुल्तान हुसैन शाह शर्की और टप्पे के लिये मियां शौरी इत्यादि।
गुरमत संगीत का प्रारंभ ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के ‘शबद’ (कीर्तन) की परंपरा को विशेष ध्यान देकर उससे प्रभु मिलन की विधा को प्राप्त किया गया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’, और ‘श्री दशम ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी गुरमत संगीत का प्रमुख आधार है।
(नोट: लेख में प्राप्त जानकारी गुगल सर्च इंजन में प्रकाशित विभिन्न लेख और शास्त्रीय संगीत/ गुरमत संगीत पर प्रकाशित पुस्तकों से प्राप्त की गई है)|
विशेष नोट:
1. गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक ‘अंग’ कहकर संबोधित किया जाता है|
2. गुरुवाणी के पद्यों का हिंदी अनुवाद ‘गुरबाणी सर्चर ऐप’ को मानक मानकर किया गया है| लेख में प्रकाशित गुरु साहिब का चित्र काल्पनिक है|
3. मेरे इस आलेख को लिखने में यदि कोई त्रुटि हो तो अनजान समझकर बक्शना जी, ‘संगत बक्शनहार है’-
भुलण अंदरि सभु को अभुलु गुरु करतारु ||
(अंग क्रमांक 61)
अर्थात सभी गलती करने वाले है, केवल गुरु और सृष्टि की सर्जना करने वाला ही अचूक है|
वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!